वर्तमान युग में प्राणी सांसारिक उपलब्धियों के ही अपनी प्रगति का लक्ष्य मान कर उसी में लगा रहता है। उनकी पूर्ति के लिये वह छल-कपट, झूठ-बेईमानी आदि को भी गलत नहीं मानता जिससे सात्विक बुद्धि का निरन्तर अभाव होता जा रहा है। यही कारण है कि मनुष्य अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को भूलता जा रहा है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आध्यात्मिक मार्ग की कठिनाईयों के कारण उसे दुर्गम मान कर छोड़ देते हैं। इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव ने साधन में होने वाली कठिनाईयों को देखते हुए अपने शिष्यों के समक्ष अध्यात्म का एक ऐसा सरल एवं सहज रूप प्रस्तुत किया जो कि पूर्णतः कर्मकाण्ड एवं बाह्य आडम्बरों से रहित है। उनके बताये हुये आध्यात्मिक मार्ग पर चलकर सहज रूप में ही साधक जीवन के परम लक्ष्य के प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार पूज्य चच्चा जी ने आध्यात्म के व्यवहारिक पक्ष पर विशेष महत्व दिया। इसी आधार पर पूज्य पापा जी ने ‘व्यवहारिक-आध्यात्म’ की नींव रखी।
मनुष्य जब जन्म लेता है तो आवरण रहित होता है। जैसे-जैसे वह सांसारिकता में फँसता जाता है उसके ऊपर काम-क्रोध लोभ मोह एवं अहंकार रूपी आवरण चढ़ने लगते हैं। साधक को अपनी साधना द्वारा इन आवरणों को हटाना है। व्यवहारिक अध्यात्म, अध्यात्म का वह व्यवहारिक एवं सरल रूप है जो सदाचार एवं कर्तव्य पालन परविशेष बल देता है इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य को अपने स्वास्थ्य, गृहचर्या, विद्याध्ययन तथा जीविका इत्यादि को ठीक-ठीक व शुद्ध बनाने के लिये अपने स्वभाव, रूचि, व्यवहार, रहन-सहन, इत्यादि का शोधन करना आवश्यक है। इन बातों का शोधन सदाचार के आधार पर निर्भर है और सदाचार आत्मोन्नति तथा ईश्वर भक्ति पर अवलम्बित है। आत्मोन्नति तथा ईश्वर भक्ति का परिणाम ही सदाचार है। जिसके विस्तार से मनुष्य अखिल विश्व या भगवान के विराट रूप जगत की सेवा करते-करते परमेश्वर के दर्शन तथा आत्म साक्षात्कार का यथार्थ लाभ उठाकर अपने सहज रूप से प्राप्त होता है। व्यवहारिक अध्यात्म के सरल एवं सहज मार्ग पर आसानी से चलकर साधक जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
व्यवहारिक अध्यात्म के मार्ग पर चलकर व्यक्ति आसानी से ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। व्यवहारिक अध्यात्म के अन्तर्गत ईश्वर प्राप्ति के मूल मंत्र निम्नवत् है:-
(1) परमात्मा गुरुदेव श्री चच्चाजी महाराज हमेशा सदाचार पर विशेष बल दिया करते थे और कहा करते थे कि सदाचारी पुरूष के लिये कोई तप या साधन की आवश्यकता नहीं रह जाती वह कर्मयोग द्वारा ही ब्रह्म की आत्मव्यता को प्राप्त कर लेता है।
(2) माता-पिता को किसी भी दशा में साधारण मनुष्य नहीं समझना चाहिए। पिता की सेवा से जगत पिता श्री भगवान और माता की सेवा से जगतमाता श्री जगदम्बा सन्तुष्ट होती है। इनकी यथाविधि सेवा किये बिना लौकिक पारलौकिक एवं किसी भी धर्म कार्य में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिये भाव और प्रेम सहित माता-पिता की सेवा करना, साक्षात भगवान के सगुण रूप की सेवा करना है।
(3) परिवार वालों से प्रेम करना ईश्वरीय प्रेम करने का सरल व सुगम साधन है। जिसने अपने परिवार वालों से प्रेम नहीं किया, वह प्रेम प्राप्त कष्ट व दुखों का अनुभव न होने के कारण प्रेम के रहस्य से वंचित रहता है।
(4) समय को अमूल्य समझकर प्रत्येक श्वास को भाव सहित श्री भगवान के स्मरण तथा ध्यान में लगाये रहने का अभ्यास तथा साधन करते रहने से मनुष्य को सदाचार की प्राप्ति हो कर यथार्थ कर्तव्य पालन तथा सेवा करने की शक्ति प्राप्त होती है।
(5) जीवन के हर अंग में ईमानदारी से रह सकते हो और इस प्रकार तुम्हारा सारा जीवन अत्यन्त ऊँचा बन सकता है।
(6) जगत की असली चीज सत्य है। उससे हृदय को शान्ति मिलती है। सत्य ही धर्म है सत्य परेशान होता है, पराजित नहीं। सत्य बोलने का अभ्यास सिद्ध होने पर वाक्य सिद्धि हो जाती है जो कुछ कहा जाय वह सब सिद्ध हो जाता है।
(7) शरीर तथा मन से किसी प्राणी को किसी प्रकार का दुख न देना अंहिसा धर्म है।
(8) निष्काम भाव से बिना किसी पक्षपात व भेदभाव के प्रत्येक प्राणी की सेवा करना साक्षात ईश्वर की सेवा करना है।
(9) अपना ध्यान ईश्वर में केन्द्रित रखो और मन को इधर उधर न भटकने दो। मन से दुखों का चिन्तन न करना ही दुख निवारण की अचूक दवा है।
(10) साधक की आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ा बाधक उसका अहंकार होता है जो अति सूक्ष्म रूप में अन्त तक बना रहता है। साधक का मुख्य प्रयत्न अपनी हालत पर नजर रखना और निरहंकारी बनना है।
(11) जो कुछ भी तुम करते हो, उसे भगवान को अर्पण करते चलो (अर्पण में ही सर्मपण है) ऐसा करने से तुम सदा जीवन मुक्ति का आनन्द अनुभव करते रहोगे।