परमसन्त सदगुरु महात्मा श्री रामचन्द्र जी महाराज का जीवन चरित

Image 12

भारत भूमि में (सदा से ही ) सभी युगों में सन्त एवं अवतार होते रहे हैं । समय-समय पोरेाणिक ग्रन्थों एवं सुप्रसिद्ध साहित्य का अध्ययन करने से हमे ज्ञात होता है कि समय की आवश्यकतानुशार जनकल्याण के लिए दिव्य आत्माए यहाँ अवतरित होती रही हैं, और अपना काम करके पुनः दिव्य लोक में विलीन हो गई।
उत्तर प्रदेश के फतेहगढ़ नगर में एक महान आत्मा अवतरित हुयी जिनका नाम महात्मा श्री रामचन्द्र जी महाराज (लाला जी) है। आपके पिता का नाम चैधरी हरबंश राय था। प्रारम्भ में इनके कोई सन्तान नहीं थी। एक बार किसी अवधूत् सन्त का फर्रखाबाद में आना हुआ। एक दिन आपके द्वार पर आकर खाना मांगा । उसने मछली खाने की इच्छा जाहिर की । उन्हे बाहर से मछली लाकर पेश की गयी। खाकर वह प्रसन्न होकर बोले क्या चाहती है। नौकरानी ने कहा मालिक का दिया सब कुछ है परन्तु बहू जी की गोद खाली है। इस पर उन्होंने ऊपर को हाथ उठाकर " अल्लाह हो अकबर " कहा और फिर "एक दो" कह कर चल दिये ।
उन्ही के आशीर्वाद स्वरुप 4 फरवरी सन् 1873 को बसन्त पंचमी के दिन लाला जी साहब का जन्म हुआ । 17 अक्टूबर सन् 1875 में करवा चैाथ को उनके लघु भ्राता रघुवर दयाल जी का जन्म हुआ उन्हें चच्चा जी साहब भी कहते है।
आपकी माता जी एक धार्मिक महिला थी वे नित्य रामायण का पाठ करती थी आप बड़े गौर से उन्हें सुनते थे। जब आप सात वर्ष के थे तब आपकी माता जी का देहान्त हो गया । एक मुसलमान खातून ने आपका लालन पालन बडे प्यार से किया । बचपन में एक मौलवी साहब से उर्दू फारसी की शिक्षा प्राप्त की । बाद में मिशन स्कूल से अंग्रेजी मैट्रिक परीक्षा पास की। कुछ दिन बाद आपकी शादी हो गयी । कुछ समय बाद आपके पिता का देहान्त हो गया।
आपकी ब्रह्म विद्या की शुरुआत आपकी पवित्र माता जी की गोद में ही हो गयी थी। बडे़ होने पर आप प्राय स्वामी ब्रह्मानन्द जी के उपदेश सुना करते थे । आपकी कोठरी के समीप दूसरी कोठरी में एक मुसलमान सन्त मौलवी फजल अहमद खाँ साहब रायपुरी रहा करते थे । पूज्य लाला जी इन्हीं मौलवी साहब से अपनी पढ़ाई की परेशानी हल कर लिया करते थे मगर यह नही जानते थे कि यही वह संन्त शिरोमणि है जिन्हें स्वामी जी प्रायः बताया करते थे । नौकरी मिलने के कुछ दिन बाद आपके कचहरी फतेहगढ़ से लौटने में देर हो गयी । जाडे की अंधेरी रात मं पानी बरस रहा था आप बिल्कुल भीग गये थे , आप ठण्ड से कांप रहे थे तभी दूसरी कोठरी में रहने वाले सूफी सन्त की कृपा दृष्टि आप पर पड़ी उन्हें बडी दया आयी । उन्होनें कहा " बेटा भीगे कपडे बदल कर मेरे पास आना " । लाला जी ने ऐसा ही किया । हूजूर महाराज ने मिट्टी की अॅगीठी में आग सुलगा रखी थी। महात्मा जी (लाला जी) ने सलाम पेश किया हुजूर महाराज ने आँख उठाकर देखा आँख से आँख का मिलना हुआ महात्मा जी के शरीर में चोटी से पैरों तक बिजली दौड़ गयी तन बदन का होश नहीं रहा । महात्मा जी को अजीब आनन्द का अनुभव हुआ अजीब हालत मस्ती की थी सारा शरीर हल्का सा था और प्रकाश से देदीप्यामान था । वर्षा बन्द होने पर आप आज्ञा लेकर घर चले गये। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखता था रोम रोम से ओइम शब्द जारी था। घर आकर सो गये। स्वप्न में देखा सन्तो का एक बड़ा समूह है उसमें आप स्वंय भी थे फिर एक दिव्य सिंहासन ऊपर से उतरता दिखा उस पर एक तेजस्वी महापुरुष बैठे थे । सब उन्हे देखकर खड़े हो गये । हुजूर महाराज ने आपको उनकी सेवा में पेश किया उन्होनें कहा इनका झुकाव शुरु से परमात्मा की ओर है। सुबह हुजूर महाराज को यह स्वप्न सुनाया तो उन्होनें आँखें बन्द कर ली और ध्यानमग्न हो गये फिर बोले यह स्वप्न नही सत्य है।
तुम धन्य हो तुम्हे वंश के महापुरुषों ने अपनाया है तुम्हारा जन्म भूले भटको को सन्मार्ग पर लगाने के लिये है 23 जनवरी 1896 ई0 में हुजूर महाराज ने आप को अपनी शरण में ले लिया और 11-1896 में आचार्य की पदवी प्रदान की ।
महात्मा जी सूर्योदय के पहले हाथ मुँह धोकर शौच स्नानादि से फारिग होकर साफ कपड़े पहन कर अपना अभ्यास करते फिर भाइयेा को शिक्षा देते । दिन में दफ्तर में रहते , वापस आने पर लोगो को तालीम देते।
पूज्य लालाजी ने इस विद्या के प्रचलन को बड़ा ही सरल एवं जन साधारण के अनुकूल बना दिया । आज इस हिम्मत की बदौलत जहाँ तक में अन्दाजा कर सका लाखो आदमी आपके अनुयायी है चाहे वे हमारे किसी भी गुरुभाई से तालूक रखते हैं।
पूज्य लाला जी के प्यारे शिष्य लोग जो ज्ञात हो सके है उनके नाम निम्न हैं-
1.            श्री भवानी शंकर जी चन्द्रनगर उरई
2.            डॉ0 चतुर्भज सहाय जी एटा
3.            डॉ0 श्याम लाल सक्सेना गाजियाबाद
4.            डॉ0 कृष्ण लाल जी सिकन्दराबाद
5.            बृजमोहन लाल जी महाराज

श्री चच्चा जी महाराज का संक्षिप्त जीवन चरित (उन्हीं के शब्दों में )

Image 12

सदगुरु की प्रापित बिना तीव्र उत्कंठा तथा हृदय की तड़प के कदापि संभव नहीं है। संसार में अब भी सदगुरुओ की कमी नहीं है, यदि किसी प्रकार सदगुरु मिल भी जाये तो मनुष्य बिना अधिकार के उनको पहचान भी नहीं सकता । यदि किसी के कहने सुनने से वह सदगुरु की शरणागत प्राप्त भी कर लेता है तो पात्र न होने के कारण वह हृदय का सम्बन्ध नहीं बना पाता। सदगुरु एक ऐसा तत्व है कि यदि आसानी से मिल भी जाये तो भी मन नही ठहरता है, जैसा कि कहा है-

मोल नही अनमोल है बिन मोलहि मिल जाय।
तुलसी ऐसी वस्तु पर ग्राहक नही ठहराय।।

यहां मै स्वंय अपनी (बीती बात बताता) आत्मकथा बताता हूँ जो मै अपने अधिकारी होने के लिये नहीं, बलिक प्रेमी भाइयों के समझाने और मनन करने के लिये कहना आवश्यक समझता हूँ।
मेरे पिता जी की उम्र 29 साल की थी , तब उनका स्वर्गवास हो गया । उस समय मेरी अवस्था केवल 11 माह थी । जब मै ढार्इ साल का था तब मेरी माता का देहान्त हो गया । मेरी दादी ने मेरा पालन पोषण किया मेरे मकान के पास शीतला देवी जी का मंनिदर था उसमें मैं प्रतिदिन प्रात: काल स्नान करके कर्मकाण्ड अनुसार पूजा करने जाता था । हर मंगलवार को व्रत रखता और महावीर जी को सिन्दूर घी में लपेट कर चढ़ाया करता था । जब मेरी आयु 11 साल की हुयी तब से मैं रामायण का नित्य पाठ करने लगा । कोंच के पास एक गाँव झलेसुर में महादेवी जी के बीहड़ में बने हुये मनिदर में एकान्त में रामायण का अखण्ड पाठ करता था।
बड़े भार्इ की शादी पर उनको परमसन्त महन्त जानकी दास जी से दीक्षा दिलायी गयी । उस समय मेरी आयु 15 वर्ष की थी। मै ने बहुत आग्रह किया कि मुझे भी दीक्षा दिलायी जाय । मै ने स्वंय भी महन्त जी से बहुत प्रार्थना करते हुये दीक्षा देने के लिये कहा । उन्होने कहा तुम अभी छोटे हो तुम्हे दीक्षा नही दी जा सकती । मैं बहुत रोया, न खाना खाया , न स्कूल गया। मेरी ऐसी दशा देख कर महन्त जी के शिष्यों ने कहा महाराज बालहठ तो आपको एवनी ही पडेगी। तत्पश्चात् महन्त जी ने देवठान एकादशी के दिन महन्त जी ने मुझे मन्त्र दीक्षा दी जिसमें , सूर्य देव का मन्त्र , गायत्री मन्त्र तथा सन्ध्या विधि लिख कर दी, मैं नित्यप्रति उन्हें करने लगा।
चार साल बाद मेरी शादी हुयी उसमें भी महन्त जी ने कुछ और बातें बतायी । मेरे विधाध्ययन काल में ही वह शरीर छोड़ गये मुझे बहुत दुख हुआ, मैं उनकी बतायी हुयी बातो को और ध्यान देकर करने लगा उरर्इ में शिक्षा के दौरान मुझे भगवदभक्त पोस्ट मास्टर गजाधर मिले, उन्होने मुझे 21 हजार राम नाम की माला जपने को कहा, मै उसे करने लगा।
कुछ समय पश्चात झाँसी जजी में नकलनबीस पद पर मेरी नियुकित हुयी ।तब तक मेरे सन्तान नहीं हुयी थी,
मेरे बडे भार्इ की पत्नी का देहान्त हो गया था । उनके दस साल के पुत्र को मै अपने पास रखकर उसे पढ़ाने लगा उससे मुझे बहुत प्रेम हो गया। उस समय मौंसी में रोग फैला था जिसमें उसकी मृत्यु हो गयी। उससे मुझे और मेरी पत्नी को बहुत आघात लगा और हम लोगो ने सन्यास लेने का निर्णय किया ।
हम लोग झाँसी से चित्रकूट पहुँचे । वहाँ पता चला कि पं0 रामनारायण ब्रह्मचारी बहुत बड़े सन्त है। हम दोनो उनका आश्रम तलाश कर ही रहे थे कि वह स्वंय पास आ गये और साष्टांग प्रणाम करके कहने लगे "मेरा बड़ा भाग्य कि आज शक्ति सहित भगवान के दर्शन हुये।" मेरे भाग्य कि आज  राम सीता के दर्शन हुये , रामायण की चौपार्इयां पढ़कर हम लोगों की स्तुति की । फिर हम लोगो को कुटी में ले गये और सत्तू के दो लडडू लाये और विनय की कि आप भोग लगा दीजिये और प्रसाद हमें दे दीजिये मैने जूठन देने से मना किया तो उसी में से खाने लगे। तत्पश्चात कहा यहाँ जंगल हैं आप प्रमोदवन जार्इये वहाँ विश्राम कीजिये। मैने उपदेश देने के लिये आग्रह किया तो कहने लगे आप स्वंय भगवान है। मैं आपको क्या उपदेश दूं फिर भी यह निशिचत है कि संसार के कल्याण के लिये जो होगा, वही आप करेंगे। ऐसा करते हुये वह मुझे प्रमोद वन तक छोड़ने आये।
मैं वहाँ करीब 9 माह रहा किन्तु मेरा मन नहीं भरा। वहाँ से मैं झूँसी (प्रयाग) बनारस , हरिद्वार होता हुआ ऋषिकेश पहुँचा। वहाँ पर मौनी संत के दर्शन हुये। उन्होने मुझे एक कागज पर लिख गृहस्थाश्रम से वापस जाने के लिए कहा और यह भी लिखा कि आपकेा एक ऐसा गृहस्थ सन्त मिलेगा जिससे आपका ही नहीं औरों का भी कल्याण होगा । फिर हम लोगो को उनकी वाणी सही लगी और हम लोग गृहस्थाश्रम में लौट आये। और में अपने दफ्तर के काम को करने लगा। एक लाख का नाम जप , रामायण का पाठ व गीता पाठ का कार्यक्रम जारी रखा।
प्रात: काल गीता पाठ के बाद मैं घूमने जाया करता था वहाँ एक डाक्टर साहब से मुलाकात होती और बात होती थी उन्होने मुझे बताया कि गृहस्थ आश्रम में एक बड़े सन्त है यदि आप चाहे तो उनसे मिलिये, उनका नाम श्री रामचन्द्र है वे कायस्थ हैं और फतेहगढ़ में मुहाफिज रफ्तर में है। वैसे मुझे ज्यादा समझ में तो नहीं आया फिर भी डाक्टर साहब के कहने पर मैने एक पत्र उन्हे लिखा कि आपसे मिलने की इच्छा है आप झाँसी आये तो मुझे सूचित करे ताकि मैं आपसे मिल सकूँ 'एक हफ्ते में पत्र का जवाब आया'

" महरबानमन, जैराम जी की
खत मिला , खुशी हुयी । मेरा झाँसी की तरफ आना नही होता अगर किभी वक्त हुआ तो आपको इत्तला दूंगा। यदि आपको मौका हो तो आप मिलिये। आपसे मिलकर तबियत खुश होगी।

बंदा
राम चन्द्र
तलैयालेन , फतेहगढ़

जिस रोज उनका खत आया, उस रात स्वप्न में उनको देखा और उनकी याद मुझे आती रही।
दीवानी में जून में एक माह की छुटटी होती है। मैने सोचा 1 माह की छुटटी में उनसे मिल लू और  देखू कैसे र्इश्वर भक्त है। लिहाजा हम लोग फतेहगढ़ पँहुचे । उनके मकान के सामने पँहुचे वह चारपार्इ पर बैठे थे उन्ही से पूछा क्या कोर्इ श्री रामचन्द्र नाम के मुलाजिम मुहाफिज दफ्तर इस मकान में रहते है। उन्होने कहा हाँ और पूछा क्या आप ही भवानी शंकर है मेरे हाँ कहने पर उन्होने मुझे चारपार्इ पर बिठाया मेरी स्त्री वहीं जमीन पर बैठ गयी। आधे घण्टे तक दुनियाबी बातें होती रही, फिर हम बरामदे में ठहरे। उन्होंने खाने के लिये कहाँ तो हमने मना कर दिया मैने कहा सक्सेना के यहाँ कच्चा खाना नहीं खाते। उन्होने कहा आपके लिये पूरी बन जायेंगी । मैं कुछ लजिजत हुआ और कहने लगा आप परेशान न हो, मै कच्चा खाना ही खा लूँगा।
उनके यहाँ रोजाना शाम को सत्संग होता था । परन्तु अपनी पूजा और कर्मकाण्ड के कारण हम लोगों को समय नहीं मिलता था । मै समझता ही नही था। सत्संग होता क्या है। इतवार को वे हम लोगों के पास आये और कहने लगे चार पाँच दिन होने को आये आपसे बातचीत का मौका नहीं मिल पाया । आइये बैठ जाइये । मैं और मेरी पत्नी बैठ गये। एक घंटे बाद उन्होने आखे खोली और मुझसे बोले कहिये कैसी तबियत रही । मैने कहा ठीक रही। उस दिन शाम को मैं सत्संग में बैठा और नाम जप करता रहा ।
करीब 15 दिन वहाँ रहा शाम के सत्संग में समय निकाल कर वहाँ जाता रहा । एक दिन मैने पूछा कि मैं ध्यान लगाता हूँ पर ध्यान लगता नही है कहने लगे कि आप चलने लगेंगे तब बताऊँगा ।
जब हम लोग चलने लगे तब भी उन्होने कुछ नही बताया। हम लोग प्रणाम करके तांगे में बैठ गये। जब तक तांगा दूसरी सड़क पर नहीं मुड़ा वे बराबर तांगे की तरफ देखते रहे। जैसे ही वे आँखो से ओझल हुये तो मुझे लगा कि बजाय मेरे वही तांगे में बैठे है और ऐसा प्रतीत हुआ कि तांगा प्रकाश की आँधी में चल रहा है। मुझे चक्कर आने लगे। मेरी छुटटी खत्म हो गयी थी । हम दोनों फतेहगढ़ से कानपुर जाने वाली ट्रेन में बैठे। ट्रेन में बैठते ही मेरा सारा शरीर प्रकाशमय हो गया। मेरी कुछ ऐसी हालत थी कि मुझे यह लगता था कि मैं उनका ही स्वरुप हो गया हूँ। मैंने उनको पत्र में अपनी हालत लिखा। जवाब में उन्होने लिखा आप तो चेला बनने आये थे गुरु बनकर गये हो। दस दिन तक दूध पर रहे , खाना ना खावे । राम नाम का जाप छोड़ के । दस रोज के बाद की हालत की सूचना दीजिये।
इसके बाद जब जब मौका मिला मैं फतेहगढ़ जाता रहा । उन्होने मुझसे कर्इ बार कहा कि मैं तुमको इजाजत देता हूँ कि तुम मेरी तरफ से मुमुक्षुओ व जिज्ञासुओ को यह विधा बतलाओ । मैं बराबर इनकार करता रहा।
एक दिन सारी मण्डली बैठी हुयी थी। मुझको बुलाकर उन्होनें अपने पास बिठाया और कहा कि मैने तुम्हारे लिये आध्यातिमक शकितयाँ खर्च की है इस आध्यातिमक कार्य में तुम मेरी खिदमत करोगे। मैने कहा ये मेरे बलबूते का नही है। इस पर जोर से जमीन पर हाथ पटककर बोले तुम क्या समझते हो तुम करोगे। काम तो मैं करुँगा। तुमसे जो प्रेम करेगा रात दिन मैं उसके घर की चौकी दारी करुँगा । मैने कहा यदि ऐसा है तो मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।
अत: अपने आदेशों के अन्र्तगत अपना काम स्वंय वह ही कर रहे है। मैं तो उनका बहुत छोटा सा सेवक हूँ हे गुरु महराज रक्षा कीजिये।

चच्चा जी का परिवार


पूज्य गुरु देव श्री चच्चा जी महाराज के चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ थी। पूज्य चच्चा जी के शब्दों में "मेरी धर्मपत्नी ने अध्यात्म मार्ग पर मुझे पूर्ण सहयोग दिया। उसको श्री गुरुदेव के चरणों में मुझसे अधिक प्रेम व विश्वास था जो उसके जीवन काल में आने जाने वाले सरसंगियो को भली भाँति विदित हैं । उसकी पवित्र कोख से उत्पन्न हुये चारों पुत्रो में आध्यातिमक विधा का बीज उनके गर्भकाल ही से पड़ा था। जो समय आने पर स्वंय प्रकट होंगे।"
इससे स्पष्ट होता है कि पूज्य चच्चा जी की प्रबल इच्छा थी कि उनके पुत्र भी आध्यातिमक रुप से समाज सेवा करे।
उनके ज्येष्ठ पुत्र. डॉ0 जयदयाल जी उरर्इ में चच्चा जी द्वारा स्थापित सत्संग कार्य भार सँभाले है तथा लाखो जीवो को सन्मार्ग गामी बना रहे हैं । उनकी धर्म पत्नी सावित्री देवी ब्रह्मलीन हो गयी है। आज कल परमसन्त डॉ0 जयदयाल जी कानपुर में सत्संग करा रहे है।
पूज्य चच्चा जी के द्वितीय पुत्र श्री कृष्णदयाल जी महाराज ए0 जी0 आफिस इलाहाबाद से सेवा मुक्त होकर उस क्षेत्र में सत्संग का संचालन कर रहे हैं। वे आदर्श जीवन व्यतीत कर सहस्त्री लोगो को सत्पथ पर चलने की प्रेरणा देते है।
चच्चा जी के तृतीय पुत्र श्री स्वामी जी (ग्वालियर से राजकीय सेवा) अवकाश प्राप्त कर चुके है उनका जीवन सातिवक ज्योति से आलोकित है उनके सम्पर्क में आने वाले सभी आध्यातिमक लाभ अर्जित करते है। उनकी धर्मपत्नी एवं सन्ताने सभी सरलता की प्रतिमूर्ति हैं।
चच्चा जी के चौथे पुत्र डॉ0 कृष्णा जी बृन्दावन में प्राचार्य पद पर कार्यरत थे। वे भी पूज्य गुरुदेव के मार्ग का अनुकरण करते हुये जनकल्याण में लगे थे। उनके ब्रह्मलीन होने के पश्चात उनकी पत्नी श्रीमती मंजू श्रीवास्तव उसी भाव प्रेम से उनके कार्य को आगे बढ़ा रही है और जनकल्याण में लगी हैं।
पूज्य चच्चा जी की अनन्य भक्तो में सुश्री दया गुप्ता का उल्लेख करना अत्यन्त आवश्यक है जिन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरु चरणों में समर्पित कर दिया। आजकल वह जालौन में पूज्य कृष्णदयाल जी के संरक्षण में आध्यातिमक कार्यक्रम करती रहती है।

पूज्य चच्चा जी महाराज के कुछ अनन्य भक्तो के नाम नीचे दिये जा रहे है-
1.            डॉ0 बृजवासी लाल (प्रिंसिपल साहब )
2.            श्री रमाशंकर विधार्थी (नायब साहब )
3.            श्री काशी प्रसाद (लखनऊ)
4.            श्री राम स्वरुप खरे
5.            श्री बृज बिहारी (वकील)
6.            श्री रघुनाथ प्रकाश भार्गव
7.            श्री ठाकुर राम पाल सिंह 
8.            श्री टी0 ओ साहब (कानपुर)
9.            श्री शुक्ला जी ( बडे लल्ला )
10.          श्री सत्य नारायण शुक्ला (आर्इ ए0 एस0)
11.          श्री भगवती शरण दास
12.          डॉ0 प्रेम प्रकाश
13.          श्री जगदीश मिश्र
14.          श्री राजमूर्ति पाण्डेय आदि

नोट :
1 परम पूज्य सदगुरु देव श्री चच्चा जी महाराज की समाधि कोच रोड उरर्इ में सिथत है।
2 चच्चा जी महाराज के अनन्य भक्त श्री काशी प्रसाद खरे जी ने अपने सदाचार आश्रम, लखनऊ में चच्चा जी महाराज का भब्य मंदिर का निर्माण किया है।

परमसंत सद्गुरु श्री कृष्ण दयाल जी महाराज का जीवन चरित

Image 12

परम पूज्य गुरुदेव श्री चच्चा जी महाराज के द्वितीय पुत्र परम सन्त श्री कृष्णदयाल जी जो कि 'पापा जी के नाम से विख्यात है आध्यात्मिक विधा से पूर्ण सराबोर थे। पूज्य पापा जी का जन्म     11.07.1928 में हुआ था। 30.12.2012 में उन्होंने अपना स्थूल शरीर छोड़ दिया और पूज्य गुरुदेव में विलीन हो गये।
पूज्य पापा जी का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो र्इश्वर भक्ति के लिये प्रसिद्ध है। उनका पालन पोषण आध्यात्मिक वातावरण में हुआ। पूज्य चच्चा जी के दर्शन एवं सत्संग के लिये अनेक शिष्य आते थे उनकी सेवा एवं आदर सत्कार करना उनके जीवन का अंग बन गया था। उनमें सेवाभाव प्रधान रहता था। इन सब बातों का उनके चरित्र निर्माण में बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने आध्यात्मिक विधा विधिवत अपने पूज्य पिता जी से सीखी।
परमात्मा गुरुदेव श्री चच्चा जी महाराज का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था। पूज्य चच्चा जी महाराज ने वर्ष 1956 में पूज्य पापा जी को सत्संग कराने हेतु अधिकृत कर दिया था। इसके उपरान्त चच्चा जी की आज्ञानुसार वे इलाहाबाद में अपने निवास स्थान पर तभी से सत्संग कराने लगे थे और गुरुदेव के स्वरूप में सिथत होकर लोगों की आजीवन सेवा करते रहे। उन्होंने पूज्य चच्चा जी महाराज के आदेश का पालन करते हुये इस जन कल्याण के कार्य को पूर्ण सक्रियता, समग्रता एवं समर्पण के साथ किया।
पूज्य गुरुदेव श्री चच्चा जी महाराज ने 1960 की गुरुपूर्णिमा में अपने सबसे बड़े पुत्र डॉ0 जयदयाल जी को सत्संग का उत्तराधिकारी घोषित करने के साथ-साथ अपने तीनों पुत्रों को समय आने पर स्वयं प्रकट होने की घोषणा भी उसी समय कर दी थी जिससे स्पष्ट है कि उनकी यह इच्छा थी कि यह लोग भी आध्यात्मिक रूप से समाज की सेवा करे। 
पूज्य पापा जी ने परम सन्त श्री चच्चा जी महाराज से प्राप्त आध्यात्मिक विधा को पूर्ण समर्पण एवं कठिन परिश्रम से स्वयं को आध्यात्म की उन ऊँचार्इयों पर पहुँचाया जो आसनी से संभव नहीं है। पूज्य गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हुये उनके जीवन चरित्र को आत्मसात किया और उनके एक-एक वचन को अपने जीवन में उतार कर एक आदर्श मिसाल कायम की।
उनका सम्पूर्ण जीवन साधनामय था। वे एक निष्काम कर्मयोगी की भाँति कर्म करते हुये सिथत प्रज्ञ पुरूष की भाँति सदैव अपने गुरुदेव में लीन रहते थे। संसार में रहते हुये कैसे संसार से अपने को विलग रखना है इसकी आदर्श मिसाल थे। अपने सम्पूर्ण जीवन में कष्टों और दुखों को सहन करते हुये सदाचार एवं कर्तव्य पालन के पथ पर चलते हुये निरन्तर अभ्यासरत रहते थे।
पूज्य पापा जी का जीवन अत्यन्त सादा, सरल एवं बाह्य आडम्बरों से रहित था। पूज्य गुरुदेव श्री चच्चा जी की भाँति अपने शिष्यों और परिवार जनों के कष्टों को अपने ऊपर लेकर हँसते हुये सहनकरना उनका स्वभाव बन गया था। किसी को कुछ भी परेशानी हो, वह कहते सब ठीक हो जायेगा और उनकी कृपा से सब ठीक हो जाता था।
पूज्य चच्चा जी साहब ने 'नर हरि उपदेश में कहा है ''सन्त कभी  प्रकट नहीं होता, केवल जिज्ञासु ही उसकी शक्ति का अनुभव कर सकता है। साधारण व्यकित के लिये वह सदैव साधारण रहेगा।
पूज्य चच्चा जी द्वारा कहा गया उपर्युक्त वचन पूज्य पापा जी पर पूर्ण रूप से चरितार्थ होता है। पूज्य पापा जी ने जिस व्यवहारिक आध्यात्म की नींव रखी उस पर साधक सुगमता से चलकर लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। इसमें न चक्रों को बेधने की जरूरत है न शब्दों के जालमें अपने को अटकाने की जरूरत है। वह कहते थे कुण्डलिनी एवं चक्रों के भेदन में कुछ साधक उसी में उलझकर रह जाते हैं तो कुछ घबराकर यह मार्ग ही छोड़ देते हैं। पूज्य पापा जी ने पूज्य गुरूदेव की भाँति सभी चक्रों को छोड़कर केवल हृदय चक्र पर सबका ध्यान आकृष्ट किया है। हमारा हृदय प्रेम का अथाह सागर है। उस प्रेम में भक्ति मिलाना है। फिर चित्त को हृदय चक्र पर एकाग्र करने का अभ्यास करना है। अभ्यास की निरन्तरता से चित्त में एकाग्रता आने लगेगी और आध्यात्म की सारी गुत्थियां सहज रूप में ही सुलझने लगेगी।
पूज्य परमसंत श्री कृष्णदयाल जी का विवाह श्रीमती शक्तिवाला जी के साथ सम्पन्न हुआ था। श्रीमती शक्तिबाला जी अपने नाम के अनुरूप उनकी आध्यात्मिक शक्ति है। आध्यात्मिक साधना पथ पर उन्होंने पापा जी का पूर्ण सहयोग किया। पूज्य पापा जी ने स्वयं इनके विषय में कहा है ''इनकी (शक्तिबाला जी) साधना उच्चकोटि की है यह सबकी र्इश्वरीय रूप में सेवा करती रहती है। इन पर परमात्मा गुरुदेव की विशेष दया एवं कृपा है और इनमें मुझसे भी अधिक श्रद्धा एवं विश्वास है। यह लोगों का मार्गदर्शन करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरे संसार से विदा लेने के बाद जो लोग मुझसे किसी प्रकार भी सम्बनिधत हैं वह इनको भी उस भाव-प्रेम से मानते रहेंगे एवं मार्गदर्शन लेते रहेंगे। अत: वे पूज्य पापा जी के अनन्य रूप में जनसामान्य की आध्यात्मिक सेवा में निरन्तर लगी हुर्इ है।
श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव जी पूज्य पापा जी के अनन्य भक्तों में एक है। पापा जी के अनुसार ''श्री ओम प्रकाश श्रीवास्तव पूज्य गुरुदेव के अनन्य भक्तों में से एक है उन पर पूज्य गुरुदेव की विशेष कृपा है। मेरे सभी सांसारिक एवं आध्यात्मिक कार्यों को वे आगे बढ़ायेंगे और उनके सम्पर्क में आने से लोगों को वहीं लाभ होगा जो मेरे पास आने से होता है। वे मेरे सभी सांसारिक एवं आध्यात्मिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह और सभी केन्द्रों का संचालन मेरे निर्देशन में करते रहते हैं और बाद में भी यथावत कार्य करते रहेंगे।

आध्यात्मिक प्रतिनिधायन ब्रह्मलीन परमसन्त श्री भवानीशंकर जी (चच्चाजी) शाखा,  उरई


Copyright ©2013 vyavaharikaadhyatm.com | Designed by M. S. Shukla | All rights reserved & Hosted by NETWORLD An ISO 9001:2000 Company